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आ लौट चलें / सुरंगमा यादव

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आ लौट चलें बचपन की ओर
माँ की गोदी में छिप जाएँ
खींचे कोई डोर
हर आहट पर ’पापा-पापा’ कहते
भागें द्वार की ओर
मिट्टी के रंगीन खिलौने
मिल जाएँ तो झूमें -नाचें
कॉपी फाड़ें, नाव बनाएँ
पानी में जब लगे तैरने
खूब मचाएँ शोर
भीग-भीगकर बारिश में
नाचें जैसे मोर
गिल्ली-डंडा,खो-खो और कबड्डी
छुपम-छुपाई,इक्कल-दुक्कल,
कोड़ा और जमाल शाही
खेल-खेलकर करते खूब धुनाई
वह भी क्या था दौर!
कच्ची अमिया और अमरूद
पेड़ों पर चढ़ तोड़ें खूब
पकड़े जाने के डर से फिर
भागें कितनी जोर
आ लौट चलें बचपन की ओर!