युग की बीन के, ओ तार !
तिमिर - सर में बन्द दृग थे
प्राण के शतदल हमारे
अधर में बन्दी उषा
थे नयन में नीले सितारे
तुम तिमिर के क्रोड़ में फूटे किरन उद्गार !
डाल पर जग के विहग हम
बोल भी पाए न थे
चेतना के पंख अपने
खोल भी पाए न थे
किन्तु तुमने किया विद्युत - चेतना संचार !
सिन्धु थी, देवापगा थी
किन्तु था न प्रवाह उनमें
हिन्द था, हम थे, न थी पर
वह दहकती दाह हममें
पर उठा तुमने दिया उर - सिन्धु में वह ज्वार !
बाँह दी, मृदु छाँह दी
सबसे अधिक दीं ज्ञान - आँखें
व्योम - विद्या का दिया
पर साथ ही दीं सबल पाँखें
शक्ति दो, जो खोल दे अब बन्द युग के द्वार !
क्षत्रिय मित्र, सितम्बर, १९४५