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सार्थ लघुवाक्यवृत्ती / ओव्या १५१ ते २०० / आदि शंकराचार्य

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पृथ्वी रजाचें गुद। एवं पंचकर्मेंद्रियें प्रसिद्ध।
हें असाधारण बोलिजे सिद्ध। वेगळालें म्हणोनी॥१५१॥

आतां साधारण रजोभूतांचा। येकदांच काढिला सर्वांचा।
तोचि प्राण पंचधा साचा। व्यापारभेदें जाला॥१५२॥

हृदयीं वाहे तो प्राण। तेणें सुख होय जीवालागून।
विसर्ग करी तो अपान। अधोगामी॥१५३॥

समान तो संधी हालवी। उदान तो क्षुत्पान करवी।
सर्व नाडीद्वारा तृप्ति द्यावी। वावरून ज्यानें॥१५४॥

एवं पंचप्राण कर्मेंद्रिय। हा दशधा भूतरजाचा समुदाय।
पहिले सात मिळून अन्वय। सत्रा तत्त्वें॥१५५॥

ऐसें हे भूतांपासून जालें। अपंचीकृत भौतिक पहिलें।
पुढें पंचीकृत करून जें निर्मिलें। स्थूळ देहासी॥१५६॥

तया स्थूळदेहा माझारीं। सत्रा येऊन राहिलीं सारीं।
मन प्राण हे राहती अंतरीं। गोलकीं दशेंद्रियें॥१५७॥

इतुकीं मिळून एक वासना। विभागली ते बोलिली वचना।
व्यापार याचे ते वर्णना। पुढें करणें॥१५८॥

असो वासना तिकडे सत्रा जाती। झोंपेंत तरी गुप्त राहती।
जडत्वें प्राण मात्र वावरती। क्रियेवांचून॥१५९॥

जेव्हाँ प्राण प्रयाणसमय। तेव्हाँ वासना जो जो धरी काय।
ते समयीं हा सर्व समुदाय। जाय तिकडे तिकडे॥१६०॥

देहाँत प्राण जेव्हाँ प्रगटती। मन बुद्धि तेथें उमटती।
आणि इंद्रियें हीं वावरतीं। स्वस्वव्यापारीं॥१६१॥

म्हणोनि ज्ञान कर्मेंद्रियाँसहित। प्राण मन बुद्धि विख्यात।
हे लिंगदेहग सर्व असत। वासना तिकडे सत्रा॥१६२॥

एवं स्थूळ सूक्ष्म देह दोन। याचें केलें निरूपण।
आतां तिसरें याचें कारण। शरीर केवीं तें बोलिजे॥१६३॥

अज्ञान हेंचि कारण शरीर। यासी आत्मा साक्षी भास्कर।
बुद्धि प्रतिबिंबरूप विकार। तो बोधाभास जीव॥१६४॥

तोचि पुण्यपापाचा कर्ता। सुखदुःख भोगी तत्त्वतां।
एक माथां घेऊन अहंता। देहबुद्धीची॥१६५॥

देहद्वय जालें जें निर्माण। कांहीं निमित्तास्तव होय दर्शन।
तेंचि कारण शरीर अज्ञान। कल्पावें लागें॥१६६॥

जेवीं अंधारीं सर्प दिसे। हा कासयानें जाला असे।
तया कल्पावें लागे अपैसें। दोरीचें न कळणें॥१६७॥

सर्पावरून न कळणें भावावें। परी तयासी रूप नोव्हे।
तेवींच अज्ञान आहेसें कल्पावें। देहद्वय दिसतां॥१६८॥

अज्ञान म्हणजे न कळणें। निजरूपाचें विस्मरणें।
हें आधीं जालियाविणें देहद्वय भासतीना॥१६९॥

हे अज्ञान म्हणसी कोणा। तरी नव्हे आत्मया आपणा।
जेवीं दोरीचिये अज्ञाना। दोरिसी नाहीं॥१७०॥

दोरीहून दोरीस पाहणार। जयासी होय मदांधकार।
न कळणियाचा विकार। तयासी जाला॥१७१॥

तेवीं स्वस्वरूप जें असंग। पहिलें स्वतःसिद्ध अभंग।
तेथें स्फूर्ति हें माया सोंग। न होऊन जालें॥१७२॥

जालें ते जरी सत्य असतें। तरी मायानामें कां उच्चारितें।
तस्मात् जालेंच नसतां तयातें। जालेंसें कल्पिलें॥१७३॥

स्फूर्ति म्हणजे अहंब्रह्म-स्फुरण। उगीच आपआपली आठवण।
जेवीं वायूची झुळूक उत्पन्न। गगना नातळतां उठे॥१७४॥

तेवीं स्वरूपाची स्फूर्ति। उठे परी स्वरूपा आरती।
असो तया स्फुरणीं असती। ज्ञानाज्ञानें॥१७५॥

स्फूर्तीत स्फूर्तीचें कळणें। तयासी नाम ठेविलें ज्ञान।
येर स्वरूप चिद्घन। विस्मरण जें तया॥१७६॥

त्या विस्मरणा अज्ञान नांव। तस्मात् स्फुरणासि आली नेणीव।
आणि ज्ञानही तेथेंचि आठव। रूप जालें असे॥१७७॥

स्वरूपीं वृत्तीच असेना। विस्मरण कैचें जें आठवीना।
यास्तव अर्तीत तें ज्ञानाज्ञाना। असे तैसें आहे॥१७८॥
 
स्फुरण होतांच तेथें उठलें। ज्ञानाज्ञान उत्पन्न जालें।
तें ज्ञान परि न जाय कल्पिलें। चिद्रुपासम॥१७९॥

पाणियामाजी सूर्य बिंबला। तेथें प्रकाशही दिसों लागला।
परी तो सूर्याचा नोव्हे भास जाला। मिथ्या उपाधीस्तव॥१८०॥

तेवींच चिद्रूपता अनंताची। स्फुरणीं प्रति भासली मिथ्याची।
ते मानिजेना स्वस्वरूपाची। कवणेंही काळीं॥१८१॥

तस्मात् ज्ञानही असेना जेथें। तरी केवीं कल्पावें अज्ञान तेथें।
हें विचारवंते जाणावें समर्थंे। व्यर्थचि येरां॥१८२॥

असो स्फुरणीं जें ज्ञानाज्ञान। तीच विद्या अविद्या ह्या दोन।
आवरणशक्ति अविद्या म्हणून। विक्षेपशक्ति विद्या॥१८३॥

दोरीचें जें आवरक। तें आवरण शक्तीचें रूपक।
सर्पाचें जें उत्पादक। ते विक्षेपशक्ति॥१८४॥

तेवींच स्वस्वरूपाचें आच्छादन। तें आवरण शक्तीचें लक्षण।
जगाचें जें उत्पादन। ते विक्षेपशक्ती॥१८५॥

असो विद्येंत जें प्रतिबिंबत। चिता ऐसा भास दिसत।
तो ईश्र्वर कर्ता सर्व जगांत। नाम ठेविलें॥१८६॥

अविद्या प्रतिबिंबित जीव। चिदाभास उमटला स्वभाव।
हाचि भोक्ता जाला सर्व। सुखदुःखाचा॥१८७॥

परी हा देहद्वय न होतां। अज्ञानगर्भीं जाला राहाता।
गुप्त असून जगा समस्ता। उपादान-कारण असे॥१८८॥

प्रतिबिंबयुक्त अविद्या माया। उपादान कारण जगा यया।
तेवींच निमित्तकारण शिष्यराया। विद्यासह ईश॥१८९॥

नेणिवेचा जो जडपणा। आणि विद्यारूप विक्षेप जाणा।
या उभयाँस्तव जाली रचना। चंचळ जडाची॥१९०॥

तेंचि ऐकावें कैसें कैसें। उत्पन्न जालें असे जैसें।
मुळीं स्फुरण तों एकचि असे। ज्ञानाज्ञान रूप॥१९१॥

ज्ञानाचा जाला सत्त्वगुण। अज्ञानाचा तमोगुण।
उभयात्मकें रजोगुण। जाला असे॥१९२॥

स्फुरणींच जें छिद्र पडिलें। म्हणजे चिद्घन असतां स्फुरण जालें।
तया अवकाशा नाम ठेविलें। आकाश ऐसें॥१९३॥

स्फुरणाचा जो चंचलपणा। तो वायूचे पावला अभिधाना।
भासलें स्फुरण तें वचना। तेज बोलिजे॥१९४॥

मुदु स्फुरण तेंचि आप। कठिण अज्ञान पृथ्वीचें रूप।
एवं हे अष्टधा सूक्ष्मत्वें अल्प। स्फुरणींच असे॥१९५॥

पुढें तमोगुणापासून। स्पष्टत्वा आलीं भूतें संपूर्ण।
एकेक भूत भिन्न भिन्न। दिसूं लागलें॥१९६॥

शब्दामुळें आकाश जालें। कीं आवकाशीं शब्दा स्फुरणस्व आलें।
तेंचि आकाश नाम पावलें। शब्द विषय तन्मात्रा॥१९७॥

स्पर्शामुळें वायु जाला। वायुमुळें स्पर्श उठिला।
यास्तव वायु हा नाम पावला। स्पर्श विषय तन्मात्रा॥१९८॥

रूपामुळें जालें आप। आपास्तव रसासी रूप।
तस्मात् आप हा तयासी जल्प। रस विषय तन्मात्रा॥१९९॥

रसामुळें जालें आप। अपास्तव रसासी रूप।
तस्मात् आप हा तयासी जल्प। रस विषय तन्मात्रा॥२००॥