चूल्हे की धधकती
हुई आंच में रखा
एक पतीला
मानो मन हो स्त्री का
जिसे कसकर ढक दिया हो
समाज की रीति-रिवाजों से
मन की इच्छाएँ, सपनें और अरमान
खदबदाते है
निकल जाना चाहते हैं
तोड़ कर बंदिशों की गिरहों को
पर सधे हुए हाथ
उतनी ही तेजी से ढक देते हैं
उस पतीले को
मानो चेताना चाहते हैं उसे
घुटती, कसमसाती,तड़पती
स्त्री का मन छलक आता है
पतीले की कोर से
और बिखर जाती है
उसकी सोंधी ख़ुशबू
सारी फ़िज़ां में
सधे हुए हाथ
फिर से लकडियाँ
ठूस देते हैं चूल्हे में
और छोड़ देते हैं उसको
उसकी तपिश में तपने के लिए
और उसके अरमानों की राख
वही दम तोड़ देती।