Last modified on 8 सितम्बर 2024, at 07:52

वो सारे स्वप्न / सुनील गंगोपाध्याय / सुलोचना

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:52, 8 सितम्बर 2024 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कारागार के अन्दर उतर आई थी ज्योत्स्ना
बाहर थी हवा, विषम हवा
उस हवा में थी नश्वरता की गन्ध
फिर भी फाँसी से पहले दिनेश गुप्ता ने लिखी थी चिट्ठी अपनी भाभी को,
"मैं अमर हूँ, मुझे मार पाना किसी के बूते की बात नहीं ।"

मध्यरात्रि में अब और देर नहीं है
घण्टा बजता है प्रहर का, सन्तरी भी क्लान्त होते हैं
सिरहाने आकर मृत्यु भी विमर्श बोध करती है ।
कण्डेम्ड सेल में बैठ लिख रहे हैं प्रद्युत भट्टाचार्य,
"माँ, तुम्हारा प्रद्युत क्या कभी मर सकता है ?
आज चारों ओर देखो,
लाखों प्रद्युत तुम्हें देख मुस्कुरा रहे हैं,
मैं ज़िन्दा ही रहा माँ, अक्षय"

कोई नहीं जानता था कि वह था कहाँ,
घर से निकला था लड़का, फिर वापस नहीं आया
पता चला कि देश से प्यार करने के लिए मिला उसे मृत्युदण्ड
अन्तिम क्षण से पहले भवानी भट्टाचार्य ने
पोस्टकार्ड पर बहुत तेज़ गति से लिखा था अपने छोटे भाई को,
"अमावस्या के श्मसान में डरते हैं डरपोक,
साधक वहाँ सिद्धि लाभ करते हैं,
आज मैं बहुत ज़्यादा नहीं लिखूँगा
सिर्फ सोचूँगा कि मौत कितनी सुन्दर है।"

लोहे की छड़ पर रख हाथ,
वह देख रहे हैं अन्धकार की ओर
दीवार को भेद जाती है दृष्टि, अन्धेरा भी हो उठता है वाङ्‌मय
सूर्य सेन ने भेजी अपनी आखिरी वाणी,
"मैं तुम लोगों के लिए क्या छोड़ गया ?
सिर्फ़ एक ही चीज़,
मेरा सपना एक सुनहरा सपना है,
एक शुभ मुहूर्त में मैंने पहली बार इस सपने को देखा था।"

वो सारे स्वप्न अब भी हवा में उड़ते रहते हैं
सुनाई पड़ता है साँसों का शब्द
और सब मर जाता है स्वप्न नहीं मरता
अमरत्व के अन्य नाम होते हैं
कानू, सन्तोष, असीम लोग ...
जो जेल के निर्मम अन्धेरे में बैठे हुए
अब भी इस तरह के स्वप्न देख रहे हैं ।

मूल बंगाली से अनुवाद : सुलोचना

लीजिए, अब बंगाली भाषा में यही कविता पढ़िए
             সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
                 সেই সব স্বপ্ন

কারাগারের ভিতরে পড়েছিল জোছনা
বাইরে হাওয়া, বিষম হাওয়া
সেই হাওয়ায় নশ্বরতার গন্ধ
তবু ফাঁসির আগে দীনেশ গুপ্ত চিঠি লিখেছিল তার বৌদিকে,
“আমি অমর, আমাকে মারিবার সাধ্য কাহারও নাই।”

মধ্যরাত্রির আর বেশি দেরি নেই
প্রহরের ঘণ্টা বাজে, সান্ত্রীও ক্লান্ত হয়
শিয়রের কাছে এসে মৃত্যুও বিমর্ষ বোধ করে।
কনডেমড সেলে বসে প্রদ্যুত ভট্টাচার্য লিখছেন,
“মা, তোমার প্রদ্যুত কি কখনো মরতে পারে ?
আজ চারিদিকে চেয়ে দেখ,
লক্ষ প্রদ্যুত তোমার দিকে চেয়ে হাসছে,
আমি বেঁচেই রইলাম মা, অক্ষয়”

কেউ জানত না সে কোথায়,
বাড়ি থেকে বেরিয়েছিল ছেলেটি আর ফেরেনি
জানা গেল দেশকে ভালোবাসার জন্য সে পেয়েছে মৃত্যুদন্ড
শেষ মুহূর্তের আগে ভবানী ভট্টাচার্য
পোস্ট কার্ডে অতি দ্রুত লিখেছিল তার ছোট ভাইকে,
“অমাবস্যার শ্মশানে ভীরু ভয় পায়,
সাধক সেখানে সিদ্ধি লাভ করে,
আজ আমি বেশি কথা লিখব না
শুধু ভাববো মৃত্যু কত সুন্দর।”

লোহার শিকের ওপর হাত,
তিনি তাকিয়ে আছেন অন্ধকারের দিকে
দৃষ্টি ভেদ করে যায় দেয়াল, অন্ধকারও বাঙময় হয়
সূর্য সেন পাঠালেন তার শেষ বাণী,
“আমি তোমাদের জন্য কি রেখে গেলাম ?
শুধু একটি মাত্র জিনিস,
আমার স্বপ্ন একটি সোনালি স্বপ্ন,
এক শুভ মুহূর্তে আমি প্রথম এই স্বপ্ন দেখেছিলাম ।”

সেই সব স্বপ্ন এখনও বাতাসে উড়ে বেড়ায়
শোনা যায় নিঃশ্বাসের শব্দ
আর সব মরে স্বপ্ন মরে না
অমরত্বের অন্য নাম হয়
কানু, সন্তোষ, অসীম রা…
জেলখানার নির্মম অন্ধকারে বসে
এখনও সেরকম স্বপ্ন দেখছে