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बेला / नेहा नरुका

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बेला के फूल की नहीं
बेला की रस्म की बात है यह
ताऊ ने किया था बेला
काँसे का बेला था
जिसमें रखे थे तीस हज़ार
पता नहीं, ज़रा से उस बेले में
तीस हज़ार कैसे आ पाए होंगे ?
पर उस दिन आए तो थे तीस हज़ार

गुलाबी साड़ी में लिपटी एक उन्नीस साला लड़की
ससुराल पहुँची थी
जिसके चेहरे पर लम्बा घूँघट था
और था अनजान रास्ता, अनजान शहर, अनजान गली
और उस गली में लोहे का एक अजनबी दरवाज़ा !

दरवाज़े से हँसती-खिलखिलाती औरतें एक साथ निकलीं
उनके बाद निकली एक ऑफ़िसरनुमा औरत
वह ऐसे ख़ुश थी जैसे छाती पर लग गया हो
एक और मेडल

उसने आँगन में पहुँचकर रिश्तेदारों से कहा,
"तीस हज़ार जो कम थे टीके में, वो आ गए बेला में ।"
फिर उस औरत ने अपने दोनों नथुनों में
मेंहदी की सुगन्ध भरी
नज़र न लग जाए का कोई जंतर किया
और कमरे के अन्दर ले आई
पर नज़र तो थी कि फिर भी लग गई
नज़र लग गई नए ज़माने की

फिर तय हुआ बेला में जितने रुपए रखे थे
कम से कम उतने तो कमाने ही हैं
एक सुबह घर के कोने में जादू घटा
काँसे का बेला कहीं फूट गया
फूट गई किसी की बेचारगी
कसैला होता गया किसी का कोमल मन
आँगन की दीवारें चिल्लाईं — असगुन ! असगुन !!

एक नदी जो मण्डप की मिट्टी में से
दिन-रात बह रही थी
बहते-बहते पलंग पर जाकर सूख गई
सूखकर रेत हो गई

'पैसे से कुछ नहीं होता'
यह वाक्य अपनी सौ आवर्तियों के बाद बोला —
“पैसों से ही होगा सब”

इस तरह उस निश्चित बेले से निकलकर
वह लड़की आसमानी रंग के इस अनिश्चित थाल में आ गिरी
पहली बार जब तीस मिले तो जैसे दूसरा जन्म हुआ था...

मेडल वाली औरत ने कहा,
"अरे इसके तो पर उग आए फलाने के पापा !"
फलाने के पापा ने कहा,
"तुम तो पर काटने की विशेषज्ञ हो, काट दो !"
"मैं तो उड़ती चिड़िया की गाँड़ में हींग भर दूँ,
पर इसकी नहीं भर पा रही हूँ।

यह औरत तो
चिड़िया से भी तेज़ उड़ रही है।"