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अहसास / अशोक तिवारी

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अहसास

पता पूछना
उस मंज़िल के
चंद सफ़र करने वालों का
कहां गए वे
किधर जमाया उनने डेरा
कहां गुज़ारी शाम
कहां पर हुआ सबेरा

काश अगर तुम गुज़रो
नहर किनारे
उन झुरमुट से
जहां कभी कुछ पेड़ हुआ करते थे
काट दिए जो अपने बूढ़ेपन के चलते
उन पेड़ों के तनों से लिपटी भीषण अग्नि
जलकर ख़ुद ही खाक हो गई

नहर किनारे
मिट्टी के ढूहों के नीचे
ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ के लाना
पैरों की कोमल छापों को
जो कहती थीं
नहीं गला सकता है उनको कोई
नहीं मिटा सकता है कोई
गुज़रा एक इतिहास पुराना
होके गुज़रा
अपनी ही आंखों के आगे

बूझ सको तो बूझके आना
कहां गए वो लोग
किया था जिनने दावा
हरियाली को फैलाने का
सूखे मन में
गीला एक अहसास जगाना
काम था जिनका
बथुए की रोटी में लिपटी
मट्ठे के खट्टे में सिमटी
उस दुनिया का पता पूछना

काश अगर तुम
ढूँढ़ सको तो बीज ढूँढ़ना
उस फल का
खाया था जो सालों पहले
उन्हीं सफ़र करने वालों ने
यहां गुज़रते और सुस्ताते
पड़ा हुआ जो मिट्टी की सतहों के नीचे
एक आस में
मिल जाए उसको कोई मौक़ा
होने को तब्दील पेड़ में
मिले खाद पानी कुछ ऐसा
लिए विरासत अपनेपन की
सुंदर दे अहसास सभी को
झूम-झूमकर उसी तरह
चलते थे जैसे सभी मुसाफ़िर
सालों पहले
सदियों पहले
या फिर
यहां-वहां बसने से पहले आबादी के
क़ायनात में

रोक सको अपने को तुम
अगर दो घड़ी
उस ज़मीन पर
जिसकी मिट्टी
गीली है पर गीली नहीं है
पैरों के कंपन में कोई
नई कहानी जन्म ले रही
एक बार फिर आहिस्ते से
महसूस कर सको
उन लमहों को
बहते जाते
नहर के उस स्थिर पानी में
आया है जो नदी छोड़कर
हर हाल में हमें सींचने!!
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