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अनवसरा / भावना सक्सैना

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चुप हैं आज प्रभु
ना रथ की गूंज, ना शंख की गाथा,
ना भोग, ना आरती,
केवल मौन का एक विलग आलाप।
मंदिर के भीतर की उस एकांतिक शांति में
बजती नहीं मंज़ीरे की ताल,
केवल एक धीमा साँसों-सा स्पंदन,
जैसे साक्षात् विष्णु
स्वयं को फिर से जाग्रत करने की साधना कर रहे हों।
कई कल्पों से ओढ़े हुए धागों में
कुछ थकन उलझ गई है।
स्नान के एक सौ-आठ कलशों ने
देह को नहीं, शायद आत्मा को भिगो दिया है।
क्या ईश्वर को भी
अलभ्य प्रेम की थकान हो जाती है?
क्या इतनी पुकारों के बीच
कभी वह एकात्मता को तरस जाते हैं?
अनसार गृह
एक कक्ष नहीं, एक अंतराल है।
जहाँ ईश्वर भी
देहधारी हो उठते हैं क्षण भर को।
जहाँ वह विराम लेते हैं
अपने ही विराट होने से।
वहाँ नीलकंठ वैद्य की भाँति
सेवक औषधि नहीं, श्रद्धा चढ़ाते हैं।
तुलसी, बेलपत्र, पंचगव्य
ये शरीर नहीं, आत्मा का उपचार करते हैं।
और हम?
हम बाहर प्रतीक्षा में ठिठके हैं,
दरवाज़े के उस पार
जहाँ न दृष्टि पहुँचती है, न चाह।
विरह का यह आधा माह
वास्तव में एक अंतर्मुखी रात्रि है
जहाँ प्रत्येक भक्त
अपने भीतर के शून्य से साक्षात्कार करता है।
क्योंकि जब ईश्वर भी मौन हो जाते हैं,
तो हमें अपने भीतर
उनकी ध्वनि ढूँढनी पड़ती है।
और वहीं, उसी मौन में,
रचता है एक नया संवाद
जो रथ यात्रा के नगाड़ों से,
संवेदना के स्पंदन से जन्म लेता है।
अनवसरा केवल ईश्वर का विश्राम नहीं
यह हमारी भक्ति की अग्निपरीक्षा है।
कि जब न दर्शन हों, न स्पर्श, न आशीर्वाद
तब भी क्या हम उतने ही जुड़े रहते हैं?
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