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कूर्म / साधना सिन्हा

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यह कैसा अन्याय
अभेद्य कवच में
बन्द एक प्राण

मन तो होता होगा
कर लें बातें
कभी तो होता होगा
मन
अपनों से मिलने

देखी विवशता तुम्हारी
चलने, चढ़ने में देह भारी
गिरते उल्टे जब
सुनी चीत्कार तुम्हारी

‘मुक्त करो’ मुझको
मुक्त करो
लादा गया जीवन
क्रिया, प्रक्रिया का परिभ्रमण

याद नहीं कुछ भी मुझ को
किसकी करनी यह जन्म
चीखे तुम कूर्म
क्यों कवच में मेरा मर्म

मिलेगा क्या अगला
सुख-स्वातंत्र्य
स्वच्छन्द देह
वानी, विवेक , विचार
अभेद्य कवच में
बन्द क्यों प्राण ?