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फ़्यूज़ बल्बों का मेला लगा है / ज्ञान प्रकाश विवेक

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फ़्यूज़ बल्बों का मेला लगा है
इस शहर का यही तज़किरा है

पैसे वालों के उत्सव में यारो
एक वेटर खड़ा डर रहा है

गिरना उठना फिसलना सँभलना
खेल बच्चे का कितना बड़ा है

तेज़ आँधी चली है शहर में
और चिन्ता में नन्हा दीया है

आँख वालों की सहता है ठोकर
ये जो नाबीना पत्थर खड़ा है

रात के ज़ख़्म पे अश्क रखके
दर्द का चाँद बुझने लगा है

चिठ्ठियाँ हैं अधूरे पते की
डाकिया कुछ परेशान-सा है

ये अँधेरा भी अच्छा है लेकिन
प्रश्न मुझसे बहुत पूछता है.