Last modified on 10 दिसम्बर 2008, at 01:51

बुरे दिन / संजय चतुर्वेदी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:51, 10 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजय चतुर्वेदी |संग्रह=प्रकाशवर्ष / संजय चतुर्...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बुरे दिन
दिमाग़ से निकलकर
दिल में चुभते हैं
मरे हुए चूहे की गन्ध जैसे रहते हैं कमरे में
सिटी बस से उतरते हैं शाम को हमारे साथ
मकानों की खिड़कियों से झाँकते हैं
पेड़ों पर बैठकर रोते हैं रात को

एक दिन अचानक हमसे पूछते हैं
कितने दिनों से खुलकर हँसे नहीं तुम लोग

बुरे दिन चले जाते हैं
हम रहते हैं।