Last modified on 19 दिसम्बर 2008, at 01:23

बजा हुआ शंख / विशाल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:23, 19 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=पंजाबी के कवि |संग्रह=आज की पंजाबी कविता / सम्...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: पंजाबी के कवि  » संग्रह: आज की पंजाबी कविता
»  बजा हुआ शंख


एक दिन मैंने उससे कहा
कि मुझे तेरा कांधा चाहिए
तो उसने कहा-
‘बात कहने के लिए
तुझे शब्दों की ज़रूरत क्यों पड़ती है?’

और फिर एक दिन आई
और कहने लगी-
‘हवा में तैरती उंगलियों को मैं क्या समझूँ
अपने रिश्ते का कोई नाम ही रख दे!’

प्रत्युत्तर में मैंने कहा-
‘समझने के लिए
तुझे अर्थों की ज़रूरत क्यों पड़ती है?’

वह इतनी ज़ोर से हँसी कि मुझे लगा
कहीं रो ही न दे
उसने हँसते-हँसते कहा-
‘मूर्ख है निरा तू भी
और मैं भी किसी पगली से कम नहीं!’

मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव