Last modified on 27 दिसम्बर 2008, at 14:25

झलक / कुमार अनुपम

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:25, 27 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार अनुपम |संग्रह= }} <Poem> इतना सरल था कि क्या था ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


इतना सरल था कि क्या था पर अवश्य है यह तो
कि बेसुध हो कुछ क़दम वह चला ही जाता था
साथ-साथ जैसे दुःख न हों, दोस्त हों

हालाँकि मिलना इस तरह नापसंद था उसे किन्तु
बना रहता था सहज अपनी ही धुनता हुआ
चलता रहता था किसी रिक्शे वाले की तरह जो
सबसे ज़्यादा चिल्लाते ज़ोर से गाते या
अकेले ही बड़बड़ाते हुए दिखते हैं जैसे कर रहे हों
दुखों को भरमाने की कोशिश, वह कुछ ऐसा ही
करता था फिर भी बचाव की लाख ज्यादती के बावजूद
चलने वाला उसके साथ अचानक बदल ही जाता था
प्रश्न में- आजकल कर क्या रहे हो? -की टंगड़ी मार
गिरा ही देता था

इतना सरल था कि क्या था पर इतना तो अवश्य था
कि बिना शिकवा किये वह चौंक कर उठता अपनी डिग्रियों
और हाथों को झाड़ता देखता इस तरह जैसे दिख गया हो
कई दिनों की कठिन धुंध को चीरता सूरज जैसे मिल गई हो
पिता को अपने बच्चे के पहले दाँत की झलक।