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परस्पर / विष्णु खरे

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साथ का आख़िर यह भी कैसा मकाम
कि आलिंगन और चुम्बन तक से अटपटा लगने लगे
ऐसे और बाक़ी शब्द भी अतिशयोक्ति मालूम हों
इसलिए उन्हें एकांत किसी जगह पर भी
महज एक-दूसरे के हाथ छूते हुए से बैठना होगा
सामने से गुज़रने वाले इक्का-दुक्का लोगों को
यह देख कर भी कुछ अजब-सा लगेगा
जहाँ ज़रा भी कुछ अलग करना नुमाइश हो जाना है
और थोड़ी दूर से उनकी खिलखिलाहट उन तक पहुँचेगी
और शायद एक लम्हे के लिए वे एक-दूसरे को फ़कत देखेंगे
उनके हिस्से की धरती
सांझ की छाया की ओर घूम रही होगी
सूरज के डूबने का भ्रम रचती हुई
और जब चेहरे और मंजर धुंधले पड़ने लगेंगे
रात का कोई पहला पक्षी कुछ बोलना शुरू करेगा
तब वे उसी तरह चुप उठेंगे
उनके बीच वह होगा
जो न फ़ासला है न नज़दीकी सिर्फ़ संग है
शायद वह उसकी उंगलियां छोड़ चुका होगा
और नीचे देखता चल रहा होगा
जबकि वह सामने देखती होगी और घटते उजाले में
उसकी वह सोच भरी किंचित मुस्कान दिखाई नहीं देगी
इसी तरह वे वापस आएंगे अपने चौथे मंजले पर
मन ही मन गिनते पाँच दर्जन सीढ़ियाँ लगभग बिना दिक़्क़त चढ़ते हुए
और या तो वह कहेगी कितने दिन हुए तुम्हारे हाथ की चाय पिये
और वह अपने खुफ़िया नुस्ख़े से उसे तैयार करेगा
या वह ख़ुद ही बिना कहे बना कर ले आएगी
उसकी आसूदा उसाँस उफ़ान की झुलसती आवाज़ में डूबती हुई
उनकी आंखें स्वाद रंगत और गर्माहट पर सहमत होंगी
परस्पर आख़िरी घूंट तक