लेखन वर्ष: १९९७-१९९९
मैं अत्यन्त अकेला था
अनन्त शून्य था मेरे अन्दर
यूँ ही विचार आया मन में
अपना भी हो एक सुन्दर घर
कुछ न कुछ बटोरकर
जैसे-तैसे आदि परमाणु रचा
बहुत लम्बी प्रतीक्षा के पश्चात
वह सुन्दर दृश्य दिखा
एक धमाके के पश्चात
छितर गया सब बहुत दूर तक
और खिसकता ही रहा है
शून्य के अन्तिम छोर तक
उभरी एक अनोखी आभा
उस विस्फोट की छितर से
बनाया सबने अपना झुण्ड
आपसी गुरुत्वाकर्षण बल से
जिसका नाम हुआ आकाशगंगा
प्रारम्भ हुई केन्द्रित परिक्रमा
फिर कुछ सौर-मण्डल बने
जिसमें कुछ ग्रह और चन्द्रमा
इस तरह शून्य का कोहरा छटा
कुछ वर्ष प्रसन्नचित्त था
किन्तु एकान्त भाया नहीं
एक अनोखी रचना बनानी थी
यह सोचकर मैंने उस पल
पृथ्वी पर रचाया जैवमण्डल
अनोखे जीवधारी बनाये
आधार रखा मृदा और जल
मनुष्य के तीव्र मस्तिष्क को
यह रचना अदभुद लगी
इस प्रश्नवाचक चिह्न पर
उसके अन्दर की जिज्ञासा जगी
मनुष्य सत्य का खोजकर्ता
नित नये आविष्कार करता
और मैं हूँ ब्रह्माण्ड,
स्वयं ब्रह्माण्ड रचयिता…