Last modified on 29 दिसम्बर 2008, at 20:50

हमने ही रखा था तुम्हारा नाम- शान्तनु / ध्रुव शुक्ल

(मौत की मोटर-साइकिलों पर सवार युवाओं के लिए शोकगीत)

तुम्हें पुकारने के लिए हमने ही रखा था तुम्हारा नाम- शान्तनु ! अब तुम वहाँ चले गए जहाँ हमारी आवाज़ नहीं जाती

अगर तुम हमारी ओर लौट सकते तो हम भी कुछ दूर तक तुम्हारी तरफ़ चले ही आते पर अब हम क्या करें तुम्हें कितना भी पुकारें तुम अब हमारी सुनोगे नहीं तुम तो बाहर ही चले गए सब मौसमों से

हम यहाँ अकेले ठण्ड में ठिठुर रहे हैं शान्तनु ! ओस की बूंदों की तरह तुम्हारी याद सबकी आँखों से झर रही है। </poem>