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चंद शेर / फ़ानी बदायूनी

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देख 'फ़ानी' वेह तेरी तदबीर की मैयत न हो।
इक जनाज़ा जा रहा है दोश पर तक़दीर के।।

या रब ! तेरी रहमत से मायूस नहीं 'फ़ानी'।
लेकिन तेरी रहमत की ताख़ीर को क्या कहिए।।

हर मुज़दए-निगाहे-ग़लत जलवा ख़ुदफ़रेब।
आलम दलीले गुमरहीए-चश्मोगोश था।।

तजल्लियाते-वहम हैं मुशाहिदाते-आबो-गिल।
करिश्मये-हयात है ख़याल, वोह भी ख़वाब का।।
एक मुअ़म्मा है समझने का न समझाने का।
ज़िन्दगी काहे को है? ख़वाब है दीवाने का।।

है कि 'फ़ानी' नहीं है क्या कहिए।
राज़ है बेनियाज़े-महरमे-राज़।।

हूँ, मगर क्या यह कुछ नहीं मालूम।
मेरी हस्ती है ग़ैब की आवाज़।।

बहला न दिल, न तीरगीये-शामे-ग़म गई।
यह जानता तो आग लगाता न घर को मैं।।

वोह पाये-शौक़ दे कि जहत आश्ना न हो।
पूछूँ न ख़िज़्र से भी कि जाऊँ किधर को मैं।।

याँ मेरे क़दम से है वीराने की आबादी।
वाँ घर में ख़ुदा रक्खे आबाद है वीरानी।।

तामीरे-आशियाँ की हविस का है नाम बर्क़।
जब हमने कोई शाख़ चुनी शाख़ जल गई।।

अपनी तो सारी उम्र ही 'फ़ानी' गुज़ार दी।
इक मर्गे-नागहाँ के ग़मे इन्तज़ार ने।।

शब्दार्थ
मैयत= अर्थी; जनाज़ा= शव; दोश पर=कंधे पर; ताख़ीर=देरी, विलम्ब;