Last modified on 5 जनवरी 2009, at 15:04

पत्थर / शरद बिलौरे

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:04, 5 जनवरी 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

छेनी और हथौड़े के संघर्ष
सारे वातावरण में
डायनामाइट के धमाकों के बीच
बहुत भीतर तक टूट-टूट कर
पत्थर
कितने ज़्यादा ऊब गए हैं
हमेशा-हमेशा दीवार होते रहने से
पता नहीं कब से पत्थर
दीवार होना नहीं चाहते।

ठेकेदार की तरह पान खा कर
बिना बात ग़ाली देना चाहते हैं।
बड़े साहब की मेम की तरह
चश्मा लगाकर छागल से पानी पीना चाहते हैं।
पहाड़ पर बहुत ऊपर तक चढ़कर
साहब की जीप की सीध में
नीचे तक लुढ़क जाना चाहते हैं।
कुल मिलाकर पत्थर
पहाड़ छोड़ देना चाहते हैं।

कहाँ जाएंगे
पत्थर पहाड़ छोड़कर कहाँ जा सकते हैं
इतने सारे पत्थर नर्मदा में डूब कर
शंकर भगवान भी नहीं हो सकते
सिर्फ़ छींट का लहंगा पहने
पीटः पर पत्थर बांधे
पीढ़ी दर पीढ़ी
तम्बाकू का पीक थूकते हुए
पत्थर
पत्थर ही तो फूट सकते हैं
या फिर दीवार होते रहने से ऊब सकते हैं।

हम जहाँ जा रहे हैं
वे पहाड तो बर्फ़ के हैं।