कवि: जयप्रकाश मानस
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पुतलियों में उतर आयी
प्रसन्ना नदी अलस सुबह
शंख शीपी शैवालों समेत
घंटियों की गूँज
आवृत्त कर रही समूची देह को
यहीं-कहीं जोत रहा है बैशाखू
खेत जो अभी-अभी मुक्त हुआ है
मूँगे-मोती अभी-अभी जो मुक्त कर लाए गए हैं
खींच रहा है हलपूरी ताक़त से
अश्रु ढुलक रहे हैं गालों पर
बारिश में छत उखड़ने के बाद भी
हवा को चीरती वह साँवली लड़की
मुस्करा रही है
दिशाओं में भर रही है लाली
मौसम ख़ुशगवार है
आकाश झुक गयाहै कंधों पर
पूरी मुस्तैदी से वह जोत रहा है खेत
पूरी ताक़त से खींच रहे हैं लकीरें
मूँगे और मोती
जबकि आज लड़ाई
पूरी तरह बन्द है