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नदी (दो) / शरद बिलौरे

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बहाव की हल्की-सी संभावना दिखाई दी
और देखते-देखते वहाँ
एक भरी-पूरी नदी थी।
नदी
कितने संघर्ष किए हैं मैंने
तुम्हें गति देने के लिए
पर तुम्हें बहते देख कर लगता है
कि मैं तो निमित्त-मात्र था
तुम तो स्वयं ही गति थीं।
तुम नदी थीं
तुम्हें लगातार बहते जाना था
ढाल की तरफ़ से मुड़ते हुए
ज़मीन पर चलते-चलते
मैं कितनी दूर तुम्हारा साथ दे सकता था।
तुम पहली बार
उन ईंटों को बहाती हुई मुड़ीं
जो मैंने
अपना घर बनाने के लिए रखी थीं
और फिर मुड़ती चली गईं
ढाल के साथ-साथ
मैदान में पहुँच कर
धरती के गर्भ में समा गईं।
मेरे भगीरथ प्रयत्नों को देख कर
शायद तुमने स्वयं को
गंगा समझ लिया था।

आओ मेरे प्यार
हम एक बार फिर से उद‌गम तक लौट चलें।
अबकी बार मैं तुम्हें
हर ढलान पर खड़ा मिलूंगा
तुम्हारे साथ बह जाने के लिए।

अभी भी तुम्हारी आँखों को देखकर
लगता है
कि कभी वहाँ नदी रही होगी
मेरे भगीरथ प्रयत्नों की
भरी-पूरी नदी।