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प्रस्तावना / दिलीप चित्रे

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छुपा कर रख दो भगोड़े विचारों को
हर कोने हर एकांत में
जहाँ रोशनी नहीं पहुँचती तुम्हें खोजने
तुम्हारे एकांत को भयानक भीड़ बनाने

छुपा कर रख दो भगोड़े विचारों को
मन के हर दरार हर तरेड़ में
जहाँ विचार रिस कर नहीं आते

पड़े रहो नीचे और गहरे
क्योंकि सतह वाली कोई भी चीज़ तुम्हें सहायता नहीं देगी

छुपा कर रख दो भगोड़े विचारों को
हो जाओ छविहीन और रहो एकाकी
क्योंकि तुम्हें फ़िर भी एक मौका मिल सकता है
मनुष्यों की दुनिया में उग आने का।

अनुवाद : तुषार धवल