हृदय के कोटर में रक्त-कणिकाएँ
लाल
चींटियों-सी चमकती हैं
एक रक्तिम आभा
सुबह से शाम तक नाड़ियों में बहती है
देह के खारेपन में बसी चींटियाँ
करोड़ों छिद्रों से बाहर निकल पड़ती हैं
देह पर छायी आरक्त संध्या
धीरे-धीरे श्यामल होती जाती है
अकेले आदमी पर अँधेरा घिरता है