Last modified on 12 जनवरी 2009, at 01:41

कर्कटों की कहानी / श्रीनिवास श्रीकांत

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:41, 12 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत |संग्रह=घर एक यात्रा है / श्...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आ रहे सभी ओर से केकड़े
जा रहे सभी ओर को केकड़े
वे पैदा हुए आकाश के नीचे जल में
और पले-बढ़े भी वहीं
वहीं रह कर किया उन्होंने
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
अपना वंशवर्द्धन वहीं किये महाभोज
मनाये ऋतुओं के मंगल-उत्सव भी
पर अब वे ऊब गये हैं
जल के पारदर्शी द्रव से
थक गये हैं अब वे
कंकड़ी मार्गों पर चलते-चलते
वे रहना चाहते थे दरअसल
तट के दलदली थाल में
सोंधी-सोंधी दोमट मिट्टी में
घर बना कर

पर वे डरते थे
कपटी मकर
भारी-भरकम
कछुओं की
अभिसारिकाओं से

जो थे सब आक्रामक
उदर-पिशाच
प्रदर्शन उन्मादी
गीली-गीली रेत पर लोटते
लगाये रहते हरदम घात

इसलिये उन्होंने मुल्तवी कर दिया
सागर-तट के विस्तारों में जाना
वे केंकड़े थे
केंकड़े ही रहे
डार्विन के विकास-क्रम में
वे नहीं थे जीवित रहने योग्य
इसलिये समाप्त होने लगा धीरे-धीरे
पृथ्वी पर लाखों साल पुराना
उनका वरुण-वंश

बावडिय़ों में भी इक्का-दुक्का
नज़र आते थे वे रेंगते अकेले
मछलियाँ उन्हें
कुछ नहीं कहती थीं
उनके आहार थे
जल और काई के नाचीज कीड़े
वे निगल नहीं सकती थीं
इन करकट-करुणों को
जिनकी थी हड्डियाँ
सख़्त कुरकुरी
बेशक उन्हें खाती होंगी
इन्सानों की कछ माँसाहारी जातियाँ

पिछले तूफ़ानों में
वे मरे थे
बड़े-बड़े ढेरों में
तट पर होती रही थीं विसर्जित
उनकी ठठरियाँ
किसी ने नहीं दिया उनकी तरफ ध्यान
किसी ने नहीं जताया
उनके हुत होने पर सोग
वे थे सुनामियों, चक्रवातों
तटीय तूफ़ानों के मारे
बेचारे अभागे कर्कट।