पहाड़
पहाड़ आराम से लेटे हैं
पृथ्वी की छाती पर
चुपके-चुपके पी रहे
उसका पोषक दूध
वे हैं मूलत: जीवावशेष भी
सामुद्रिक जलचरों के
मत्स्य, कुर्म, जल-अश्व सभी
उत्तर में यहाँ कभी
ठाठें मारता था समुद्र
अब जो धो रहा दक्षिण में
धरती के पाँव
पीठ पर इनके अब
उग आये हैं जंगल
रोम रोम खिली हरियावल
इनके बड़े भाइयों ने ओढ़े हैं
बर्फ के श्वेत दुशाले
ऊपर ऊपर
और और ऊपर
कितने ही मानसरोवर
कितने ही कैलाश
शान्ति के पुँज
सीढ़ीनुमा खेतों की
एक अलग दुनिया हैं पहाड़
जिनकी शिराएँ हैं
नद-पानियों की शीतल धाराएँ
एहसानमन्द मैदानों को
पिलातीं अमृत
इनकी थपकी से फूलती है सरसों
गन्दम की खेतियाँ मनातीं वैशाखोत्सव
इनकी आवाज से
ईख में पड़ता है मीठा रस
ये हैं त्र्यम्बक शिवालिक
ये हैं हिन्दू-कुश हिमालय
त्रिकाल संध्या और
योगध्यान में लीन
जीवाश्म ही नहीं हैं ये
ये हैं प्राणमय
पहुँचे हुए तपस्वी
समुद्र मंथन के
अमूल्य अवशेष हैं ये
इन्हें पहचानो
इन्हें समझो!