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बारिश / श्रीनिवास श्रीकांत

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बारिश

बज रहा आसमान का दमामा

बादल दल कर रहे

बारिश का ऐलान


ढलानों पर झूमने लगे हैं वन

पंछी दुबके हैं अपने-अपने गेहों में

भयातुर


बरसात जीवों का है

आनन्दोत्सव


ऊपर

आसमानों के बहुत ऊपर

जहाँ तक नहीं पहुँचती

आदमी की नजर

घूम रहा अपनी गति से

ब्रह्माण्ड का सृष्टि-चाक


फैल रही होगी वहाँ

शब्दहीन

गन्धहीन

निनादहीन

अणु-परमाणुओं की

अगरु धूम

समाधि लगी हो ज्यों

गुरु जोगी की

सरोवर में तैरने लगे हों

कल हंस

आत्माएँ पी रही हों

पंचभूत कटोरों में पानी


जमीन इस एकरस बारिश में

होना चाहती है रजसिक्त

ताकि वनौषधियों में फिर से

पड़ जाए जान

ओज से भर जाएँ

उनके प्रजनित चेहरे।