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मूँछें-5 / ध्रुव शुक्ल

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मैंने अब तक क्यों नहीं मुँड़ाई अपनी मूँछें ?

मूँछों को देखता हूँ
तो पिता की याद आती है

अब तो एक बाल भी सफ़ेद हो गया है
ज़माने के डर से
उसे काला करने की सोचता हूँ

हड़बड़ी में मूँछें बनाता हूँ
कभी-कभी कैंची चल जाए इन मूँछों पर
इन्हें मूँड़ने का बहाना तो मिल जाए

शान से कहूँगा--
बदसूरत दिखती थीं
मूँड़ दीं