Last modified on 17 जनवरी 2009, at 20:48

इक्कीस मुक्तक / प्राण शर्मा

द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:48, 17 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्राण शर्मा }} Category: कविता <poem> १. ये भोली-भाली है ह...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

१.
ये भोली-भाली है हाला
कैसी मतवाली है हाला
चखने में कड़वी है लेकिन
चीज़ निराली है हाला
२.
मदिरा को पेश करे न करे
मानस की प्यास हरे न हरे
हर मद्यप इस में भी खुश है
मधुबाला पात्र भरे न भरे
३.
मस्ती के घन बरसाती जा
हर प्यासा मन सरसाती जा
पीने वालों का जमघट है
मधुबाले, मदिरा लाती जा
४.
ऐ दोस्त, तुम्हे बहला दूँगा
मदमस्ती से सहला दूँगा
मेरे घर में आ जाओ कभी
तुमको मधु से नहला दूँगा
५.
लाता जा प्याले पर प्याला
ऐ साक़ी, कर न अगर-मगर
अब बात न कर मदिरा के सिवा
मस्ती है तारी तन-मन पर
६.
सब को पीने को बोलेगा
जीवन में मधुरस घोलेगा
अपना विशवास अटल है यह
साक़ी मयखाना खोलेगा
७.
सब के आगे लहराता है
और हर इक को बहलाता है
कितना ही सुंदर लगता है
साक़ी जब मय बरसाता है
८.
कब मदिरा पीने देता है
कब घाव को सीने देता है
साक़ी, कब द्वेषों का मारा
उपदेशक जीने देता है
९.
इस से हर चिंता छूटी है
दुःख की हर बेडी टूटी है
मत कोस अरे जाहिद मदिरा
यह तो जीवन की बूटी है
१०.
उपदेशक बन कर मतवाला
आया है पीने को हाला
ऐ साक़ी उसकी आमद पर
बरसा दे सारी मधुशाला
११.
वैभव और धन अर्पण कर दें
अपने तन-मन अर्पण कर दें
मदिरा की खातिर साक़ी को
आओ, जीवन अर्पण कर दें
१२.
मुस्कराते हैं, लड़खड़ाते हैं
एक-दूजे को सब ही भाते हैं
मयकदे में हैं रौनक़ें इतनी
चार जाते हैं आठ आते हैं
१३.
जब चला घर से तो अँधेरा था
एक खामोशी का बसेरा था
पी के मदिरा मुड़ा मैं जब घर को
हर तरफ़ सुरमई सवेरा था
१४.
एक मस्ती बनाए रखती है
हर ह्रदय को लुभाए रखती है
यह सुरा रात-दिन लहू बन कर
सबकी नस-नस जगाये रखती है
१५.
चाक सीता हूँ ज़िंदगी के लिए
मैं तो जीता हूँ ज़िंदगी के लिए
भेद की बात आज बतला दूँ
मैं तो पीता हूँ ज़िंदगी के लिए
१६.
मन ही मन में क़रार आया है
इक अजबसा ख़ुमार आया है
जब से आयी है रास मय मुझको
ज़िंदगी में निख़ार आया है
१७.
दोस्त, मयखाने को चले जाना
पीने वालों के साथ लहराना
ज़िंदगी जब उदास हो तेरी
घूँट दो घूँट मय के पी आना
१८.
रात-दिन मयकदे में आओगे
गुन सुरा के कई बताओगे
जाहिदों, जब पीओगे तुम मदिरा
सारे उपदेश भूल जाओगे
१९.
साक़ी के बनते तुम चहेते कभी
पल दो पल मयकदा को देते कभी
उसका उपहास करने से पहले
काश, मय पी के देख लेते कभी
२०.
जाहिदों, पहले अपने डर देखो
तब कहीं, दूसरों के घर देखो
ख़ामियाँ ढूँढ़ते हो रिन्दों में
ख़ामियाँ ख़ुद में ढूँढ कर देखो
२१.
मयकदों में जुटे हुए हैं रिंद
मस्तियों में खिले हुए हैं रिंद
क्या तमाशा किसी का देखेंगे
ख़ुद तमाशा बने हुए हैं रिंद.