Last modified on 18 जनवरी 2009, at 00:03

स्वप्न दर्शन / श्रीनिवास श्रीकांत

प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:03, 18 जनवरी 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

स्वप्न दर्शन
वे उतरे थे छतरियों से
बड़े-बड़े गुब्बारों से बँधी
रस्सियों से भी
झूल रहे थे कुछ

नीचे थी श्वेतनील घाटियाँ
ढलानों पर खड़े थे
ध्यानस्थ दरख्त
अनेक रंगों वाले

दूधिया हल्की रोशनी में
नहायी-नहायी लगती थीं
वन वीथियाँ
आँखों में तैर गये थे
मायिक ज्योति के
अदभुत कंद
अन्तरिक्ष में उड़ रहे थे वे
एक साथ
कुछ न कहते
उकाब की तरह दृष्टि को पंख फैला
मैं था उड्डïयनशील
पल में ही एक- एक कर
वे हो गये अदृश्य
प्रक्षेपित आसमान में

पर मेरे अन्दर
कुछ था सारवान
जो था निश्चेष्ट जल की तरह
स्थितप्रज्ञ

सूरज नहीं था वहाँ
और न उसके ढलते रंग
न था कोई क्षितिज
उन मायावी घाटियों के पार

जल में मुझे
घेर रही थी अतिनिद्रा

जगा तो पाया
मेरी काया पड़ी थी
एक अनदेखे समुद्र के तट
छप-छप करती थीं जल तरंगें
और आसमान था साफ
नये सूरज के स्वागत में

मैंने याद किया
घाटियों में जो उतरे थे
वे थे शब्द
अपने भावार्थों से बँधे
वे उतरे थे
चेतना की वीथियों में

लिखे गये थे वे
दूधिया रोशनी के पृष्ठ पर
जिसे पढ़ रहा था
मेरा देव-गरुड़
अनन्त के
अपरिधिजन्य
विस्तार में।