Last modified on 18 जनवरी 2009, at 01:38

वे दोनों / चन्द्रकान्त देवताले

74.65.132.249 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 01:38, 18 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चन्द्रकान्त देवताले }} <poem> वह जो लगातार कहता आ रह...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


वह जो लगातार कहता आ रहा था
और अभी-अभी भी कहने जा ही रहा था कुछ
अकस्मात् गूँगा हो गया है,

और वह जो बरसों से चुप
काले लिबास में कुर्सी पर बैठा था
बोलने लगा है,

जो बोलने लगा है
वह नशे में है
और भुनी हुई काजू के टुकडों से
फ़िलहाल उसका मुँह भरा है
वह काग़ज़ पर लिख कर
बता रहा है-
मैं इत्मीनान से बोलूँगा बाद में
न बोलने के सुख
और काजू के स्वाद के बारे में...

और वह जो अकस्मात्
गूँगा हो गया है
उसके चेहरे पर बहुत-सी
फूटी कौडियाँ उग आई हैं
और उसकी जिह्वा लटक कर हवा में
कुछ ढूँढ रही है
उसने लिख कर बताया-
मैं इस शख्स को ख़त्म कर दूँगा
इसके मुँह से पहला शब्द निकलते ही
सिर्फ़ तब तक के लिए मैं
गूँगा हूँ फिर बोलने लग जाऊँगा
हमेशा की तरह...