Last modified on 18 जनवरी 2009, at 04:01

घास / अग्निशेखर

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:01, 18 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अग्निशेखर |संग्रह=मुझसे छीन ली गई मेरी नदी / अग्...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हर तरफ़
आदमी से ऊँची घास थी
घनी और आपस में गुँथी हुई
वहीं कहीं थी हमारी पगडंडी
जिसे हम खोज रहे थे
अंधेरा था
मालूम नहीं पड़ रहे थे पैर
कहाँ उलझ रहे हैं
हमें पहुँचना था अपनों के पास
फड़फड़ा रहा था दिल
सन्नाटे में झूम रही थी घास
उन्हीं कुछ लम्हों से बचाना था
हमें अपना इतिहास