Last modified on 22 जनवरी 2009, at 21:05

शून्य / गजानन माधव मुक्तिबोध

द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:05, 22 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध |संग्रह= }} <Poem> भीतर जो शून्य...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

भीतर जो शून्य है
उसका एक जबड़ा है
जबड़े में माँस काट ख्खाने के दाँत हैं ;
उनको खा जायेंगे,
तुम को खा जायेंगे ।
भीतर का आदतन क्रोधी अभाव वह
हमारा स्वभाव है,
जबड़े की भीतरी अँधेरी खाई में
ख़ून का तालाब है।
ऐसा वह शून्य है
एकदम काला है,बर्बर है,नग्न है
विहीन है, न्यून है
अपने में मग्न है ।
उसको मैं उत्तेजित
शब्दों और कार्यों से
बिखेरता रहता हूँ
बाँटता फिरता हूँ ।
मेरा जो रास्ता काटने आते हैं,
मुझसे मिले घावों में
वही शून्य पाते हैं ।
उसे बढ़ाते हैं,फैलाते हैं,
और-और लोगों में बाँटते बिखेरते,
शून्यों की संतानें उभारते।
बहुत टिकाऊ हैं,
शून्य उपजाऊ है ।
जगह-जगह करवत,कटार और दर्रात,
उगाता-बढ़ाता है
मांस काट खाने के दाँत।
इसी लिए जहाँ देखो वहाँ
ख़ूब मच रही है,ख़ूब ठन रही है,
मौत अब नये-नये बच्चे जन रही है।
जगह-जगह दाँतदार भूल,
हथियार-बन्द ग़लती है,
जिन्हें देख,दुनिया हाथ मलती हुई चलती है।