ठेलू ठीहे पर जाता है
और जुगाड़ जमाता है
काँटा काँटे पर फिट हो रहा है
कील से कील भिढ़ रही है
न सूत भर इधर
न सूत भर उधर
यह रहा कमासुत हथौड़ा...
बजर हनता है
छेनी संड़ासी में ऐसे तनी है
जैसे गुदार माँस में धँसा हुआ दाँत
पेंच जहाँ ढीले थे, थर दिए गए हैं
मशीन बिलकुल तैयार है
खराद के लिए
मगर कहाँ है बिलाक
नकशा कहाँ है
कहाँ है औजारों की बाँक
और सबसे ज़रूरी-सधे हुए हाथ
कहाँ है
रोटी कितने मशक्कत से मिलती है
इस पैने वक्त
जबकि चीज़ें बेशुमार
बनैली शक्लों में बदल रही हैं
और लोहा जहाँ गलत मुड़ गया है
ठोंक कर ठीक हो सकता है
पलटू टेम पर नहीं आता
ठेलू को मिस्त्री से शिकायत है
ठेलू ठीहे पर जाता है
धुकनी की मरी हुई खाल को
निहारता है
बुझे हुए कोयले छाँटकर
भाठी धधकता है
लोहसाँय चालू होती है
एक एक कर आते हैं किसान
खेतिहर... मजूर
गाँव गिराँव से
सलाम-रमरम्मी के बाद
ठेलू फरगता है फाल
गड़सा, खुरपी, कुदाल
हँसी मजाक, बतकही चलती रहती है
इसी के दौरान
इधर उधर देखकर
धीरे से कहता है टकू बनिहार
...'हँसुये पर ताव जरी ठीक तरे देना
कि धार मुड़े नहीं आजकल
छिनार निहाई ने
लोहे को मनमाफिक हनने के लिए
हथोड़े से दोस्ती की है,
सब ठठाकर हँसते हैं
ठेल मतलब दहाकर मुसकाता है
और आँच लहकाता है।