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उपवन-उपवन / ओमप्रकाश सारस्वत

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उपवन-उपवन
रचता जाए
मौसम, छंद नये
कली-कली नित
करती जाए
फिर अनुबँध नए

कोयल
अल्हड़ अमराई को
फगुआ सुना रही है
मधुछंदी मधुकण्ठी
बाला
गिरि को
गुँजा रही है
गीतविपंची
निर्मलमन में
बरबस द्वंद्व भरे

गंध लुटाती देहलताएँ
मँत्रलुटाती
शाखें
जादू पढ़ती
जीम
चञ्चु – चञ्चु
टोना पढ़ती
पांखें
रूप गंध रस स्पर्श
सभी तोड़े तटबंध नए

साल बाद
यौवन लौटा है
वसुधा
लजा रही है
कैसे
प्रिय से मान करे
लघु मन को
मना रही है
राग भरे दृग
चाव भर डग
हो स्वच्छन्द गए