शहर जिस सुबह के लिए
अंधेरे से लड़ता है
कौन जंगल में भटकी भीड़ की तरह
उस सुबह को
खूंटे से छुड़ा
मचान की ओर
दबे पाँव बढ़ता है
अहेरियों से घिरे कस्तूरी मृग की तरह
दिन
खबरों के पहिए पर
रफ्ता-रफ्ता सरकता है
कौन इस शहर में
झूठ को
इतनी खूबसूरती से गढ़ता है
शाम की अरगनी पर
उतरती है
चेहरों की भीड़
कौन इन चेहरों को
शहर के दिल में
डूबती धड़कनों की तरह पढ़ता है
मौसम तो उछलता है
ऊन के गोले की तरह दिनभर
आँगन-आँगन
द्वार-द्वार
कौन चुपके से इस गोले को
अपनी जेब में रख
अँधेरे का पहाड़ चढ़ता है
रात आती है
खामोशी के पालने में बैठ
हाथ से नहीं मिलता हाथ तब
हाथ से धुंध टकराती है
कौन शहर की दरारोँ झाँकती
अजनबियत की अमरबेल से लड़ता है।
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