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बच्चे / सरोज परमार

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न तारे , न परियाँ
न फूल , न तितलियाँ
रह गई हथौड़े की चोट -सी
चुनौतियाँ
कम्प्यूटर के विध्वंसक खेल की.
गायब है खिलखिलाता ,झगड़ता
मासूम जमावड़ा.
गुम हुआ है इस दौर में
गिल्ली- डंडा, कंचे ,किलकिलकाँटा
तीन टाँग की दौड़.
किसी साज़िश के तहत
पीठ पर टँग गए बेरहम बस्ते
और बदल दिए हैं मायने
चाँद,सूरज,बारिश,बादल,परिन्दों ने.
उनके रचना संसार पर काबिज़
हो गया शक्तिमान
कार्टून फ़िल्म देखते,झेलते
कार्टून हो चले हैं बच्चे
उनकी झोली में भर गई है
ऊब,ज़िद और उकताहट
कोई जिन्न निगल रहा है बचपन
रास आने लगा निपट अकेलापन
अब कोमल सपने नहीं बुन पा रहे बच्चे.
अपनी राह नहीं चुन पा रहे बच्चे.