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माँ / सरोज परमार

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ख़ाली हो गई है
कमरे के कोने में पड़ी चारपाई
आँगन में पड़ी नेवाड़ की
भूरी कुर्सी
गायब है
बार-बार बक्सा खोलते
बार-बार अलमारी टटोलते
हाथ.
यूँ तो खूँटी पर टँगा है
आज भी दुपट्टा
मेज़ पर पड़ा है चश्मा
प्याले में पड़े हैं दाँत भी
दहलीज़ पर दुबकी-सी पड़ी है
चप्पल भी
नहीं हैं बहुत कुछ बोलने वाली आँखें
बार-बार छाती से लगाने वाली बाँहें
सिर पर हाथ फिराने वाली उँगलियाँ
शिकवे शिकायतों आशीषों की झड़ियाँ
माँ कहानी हो गई है.
जिसके उद्धरण जब तक
घ्टनाक्रमों में पिरोती है
अनुभूतियों और विश्वासों को
अपनी कोख जाई में जगाती हूँ
माँ सितारा हो गई है
उसकी रोशनी में लाँघ जाती हूँ
अँधियारे की कई नदियाँ
और बुन लेती हूँ सपनों की जाली
कभी शिराओं में सरसराती है
चिन्ताओं में कुलबुलाती है
उनकी सोच को ओढ़ते-बिछाते
मैं माँ हुई जाती हूँ.