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कहते “था चिपक रहा भींगा पट काया से कर होड़ प्रिये! / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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कहते “था चिपक रहा भींगा पट काया से कर होड़ प्रिये!
था सभय कहीं यह अमल इन्दु वदनी न हमें दे छोड़ प्रिये!
सिहरती रही मारुत-नर्तन से तड़ित-लता-सी देंह प्रिये!
शरदेन्दु-वदन पर जल-सीकर का अहा सघन था मेह प्रिये!
”पंकिल“ मृदु चिकुर विखर करता था उरज-अमृत का पान प्रिये!
थी बार-बार मृदुले! सम्हालती आर्द्र वक्ष-परिधान प्रिये”।
हो विपिन बिहारी लाल। कहाँ बावरिया बरसानें वाली ।
क्या प्राण निकलनें पर आओगे जीवन वन के वनमाली ॥117॥