Last modified on 2 फ़रवरी 2009, at 20:02

छू सकती केश-कलाप नहीं कर सकती नव जूड़ा-बन्धन / प्रेम नारायण 'पंकिल'

218.248.67.35 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 20:02, 2 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेम नारायण 'पंकिल' |संग्रह= }} Category:कविता <poem> छू स...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


छू सकती केश-कलाप नहीं कर सकती नव जूड़ा-बन्धन।
कर कसती सरि-मज्जन न नवल आभूषण नवल-वसन-धारण।
प्राणेश-केलि-सुख-निधि विलीन हो जाय न हूँ इस हेतु-सभय।
तज दूँगी प्रातःकाल-कलेवा दिवस-असन रजनी का पय।
इन अधर दलों पर अंगराग का ग्रथन करूँगी प्राण! नहीं।
हॅं सभय, श्वाँस-माधुर्य तुम्हारा लुप्त न हो प्राणेश! कहीं।
दधि-मटकी लिये खड़ी विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥141॥