Last modified on 3 फ़रवरी 2009, at 13:59

सुख / सरोज परमार

द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:59, 3 फ़रवरी 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)



चिन्दी-चिन्दी फट जाने में
टुकड़े-टुकड़े बँट जाने में
कैसे पा जाते हैं सुख?
चिथड़े की मानि‍द
अंतिम दम तक नुच जाना
हर रेशे का चुस जाना
ही होता होगा शायद सुख।
भुरभुरे घास के तिनके-सा
गिर जाना उड़ जाना,बिछ जाना
ही है शायद सुख।
ज़र्रा-ज़र्रा बिखर जाने मेम
सोंधी माटी में मिल जाने में
किंचित पा जाते हैं सुख।
दुख के पाँव लम्बे लगे
सुख की चादर छोटी
पैर सिकोड़ कर सोना ही
है मुझ जैसों का सुख।