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फर्क / केशव

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यहाँ
इस जंगल में नहीं
चाहे कोई आस-पास
सिर्फ़ पेड हैं
     पेड़ ही पेड़
आँधियों से कँधा भिड़ाते
मौसमों को गले लगाते
अपनी ख़ामोशी
हर पल तोड़ने के लिए उद्यत
और धूप के जल में
अपनी प्यास बुझाने कि लिए
                 नतमस्तक

उनकी छाया
जोड़ती उन्हें
           एक-दूसरे से

वहाँ
शहर की छत के नीचे
सिर्फ लोग हैं
         लोग ही लोग
अपनी आवाज़
बर्फ़ से गर्म करने में तल्लीन
गले को
बीयर से सींचते
अपनी छाया
रबर की मानिंद खींचते
             सीढ़ी-दर- सीढ़ी
धूप में
सफेद बाल गिनते
बेंच-दर –बेंच
उम्र की पिचकी हुई गेंद ठेलते
             सड़क-दर-सड़क

नाख़ूनों की बढ़ती लम्बाई
तोड़ती उन्हें
            एक- दूसरे से