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नदी / गणेश गम्भीर

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जिसने चाहा किया उसी ने
पार नदी को।

पूजा-उत्सव
सभी व्यवस्था
पहले जैसी
दान-दक्षिणा
सन्त-भक्त
गणिकाएँ विदुषी

युगों युगों से
रहे निरन्तर तार नदी को।

सभी कुशल तैराक
नहीं होते
नायक ही
विजयी होने की
उनकी इच्छाएँ
सतही

कभी न भाया
यह दैहिक व्यापार नदी को।

सहमति वाली नाव
असहमति वाले
पुल से
बालू के विस्तार
और
मटमैले जल से

समय दे रहा है
अजीब आकार नदी को।