ढूंडता फिरता हूँ
अपनी पहचान के अक्षर
सिमटे से दबे रहते हैं
उलझे मेरे हस्ताक्षर
पुराने काग़जों का एक पहाड़
सदा रहा मेरे सामने
उसे छांटते संवारते
उड़ती रही धूल
जमती रही मेरे ऊपर
गोधूली तक
धुंधलके में सदा
भूत-सा दिखता रहा कुछ
बूँद-बूँद रिसता रहा
मेरा अस्तित्व
किस से पूछूं
क्या मैंने भी
जी लिया एक जीवन
सुबह उठकर
मलता रहता हूँ आँखें
याद नहीं आते
सपने में जो
देखे थे सपने
आँखों में वह चमक कहाँ
देख सके जो
क्षितिज पर दूज का चाँद
बादलों से
एक साथ टपकी
पहाड़ के दोनों ढलानों पर बरसी
ओ मेरी रसधार
तू कहाँ! मैं कहां?