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इंताज़ार / श्रीनिवास श्रीकांत

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बड़ी ही शातिरी से
ईजाद किये उन्होंने विस्फोट
और कर दिया उन्हें तैनात
अपने बारूद के तहखानों में

भूल गए वे
कि हर अणु है एक नन्हा सूरज
पृथ्वी पर उतरा
ब्रह्माण्ड किरणों का अग्रदूत
भूल गये वे
कि मनुष्य कब से है खड़ा
मृत्यु के कगार पर
जिसके पंजे सहला रहीं अहर्निश
अन्तर्महाद्वीपीय, कूटनीतिक, शान्तिवार्ताएं

नहीं, जी नहीं रहे हम
हम कर रहे एक दूसरे से प्रवंचनाएं
जिनकी सतह पर देख रहा मैं
भयभीत शिशुओं के हिलते हाथ

पृथ्वी का ही दूध पी कर
चेहरे पर उसके
मक्खियों की तरह
भिनभिना रहे हम
बना दिया उसे
अपने ही हाथों कंगाल
बंगाल की खाड़ी में विसर्जित हो
अब गंगा नहीं होती खुश
न टेम्स, न कोलोराड़ो और
न अरब सागर की ओर बढ़ती सतलुज

गंगा, वह गंगा......आह.....
नहलाया कभी जिसने मुझे
मन की कठौती में
जब मेरा मस्तक था हिमालय

रात को सोचता हूँ, बिस्तर में पड़े पड़े
कि क्या से क्या हो गये हैं मेरे स्वजन
जिनके साथ मनायी मैंने कितनी ही ईदें
कितनी ही दीवालियाँ
कितने ही क्रिसमस
ईदियां बाँटी, मिठाईयां लीं-दीं
सुने सामगान की तरह गूँजते
चर्च के कोरल
पर, अब न जाने
क्या हो गया है स्वसजनों को
सब दौड़ रहे अपने-अपने
अहम की ओट में
एक अन्धी दौड़
जिसका अन्त होता है हर बार
एक अर्थहीन
विद्रूप
असुनिश्चित मृत्यु में

यह सब सोच-सोच कर
मैं हुआ हूँ उदास

नहीं
अब नहीं आती रातों को नींद
एकलेपन के गहरे सन्नाटे में
जिसने ढंक लिया है
अब तक आत्मा को भी
उाठती है अन्दर
रह-रह कर हूक
वैसे ही जो कभी बचपन में
उठा करती
माँ के मर जाने पर
कर रहा हूँ कब से इन्तज़ार
कि आयेगा पृत्वी पर
कोई मसीहा
बाँध कर ले जायेगा
दुखों की पोटली में
विस्फोटों का सामान
और विसर्जित कर देगा
आकाश गंगाओं में
ताकि वसुओं की यह पृथ्वी
हो सके फिर से आबाद।