Last modified on 7 फ़रवरी 2009, at 08:27

ख़ूबसूरत दिन / स्वप्निल श्रीवास्तव

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:27, 7 फ़रवरी 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


उसने खोल दी खिड़कियाँ

ढेर-सी ताज़ा हवाएँ दौड़ कर आ गईं घर में

ढेर-सी धूप आ गई

और घर के कोने-अतरे में बिखरने लगी


टंगे हुए कलैंडर में

उसने घेर दी आज की तारीख़

तस्वीरों पर लगी धूल को साफ़ किया

रैक पर सजा कर रख दीं क़िताबें


खिड़की के बाहर

हिलती हुई टहनी को देखा और कहा

'तुम भी आओ मेरे घर में'

टहनी पर बैठी हुई बुलबुल

उल्लास में फ़ुदकती रही


पहली बार वह अपने घर में देख रहा था

इतना ख़ूबसूरत दिन