Last modified on 7 फ़रवरी 2009, at 08:35

संदूक / स्वप्निल श्रीवास्तव

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:35, 7 फ़रवरी 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


कई वर्षों बाद लौटा हूँ इस शहर में

यह शहर मुझे जंग खाई हुई

पुरानी सन्दूक की तरह लगा है

जिसमें रखे हुए हैं सहेजकर मेरे पुराने दिन


सन्दूक से आ रही है लुभावनी ख़ुश्बू

आज धूप है

मैं चाहता हूँ इस सन्दूक से

सारी चीज़ें निकालकर दिन में सुखा दूँ

कुछ क्षणों के लिए हो जाऊँ तरोताज़ा

धूप की उंगलियाँ पकड़कर घूम आऊँ शहर

शहर को सन्दूक की तरह बन्द करके जेब में रख लूँ चाबी

रेल पकड़कर चला जाऊँ दूसरे शहर सन्दूक के साथ

दूसरे दिन अख़बार में यह ख़बर पढ़कर

कितना उल्लसित हो जाऊंगा

कि एक शहर गायब हो गया