एक बोरसी है मेरे घर में
मेर घर को किए हुए गर्म
हमारे अन्दर प्रवाहित करती हुई उष्मा
पोतनी मिट्टी से बनी हुई
पृथ्वी की तरह गोल
मज़बूत झाँवे की तरह पकी हुई
जैसे वह कुम्हार की चाक पर ढाली गई हो
माँ के हाथों बनाई गई बोरसी
सोने के पहले बोरसी में माँ
रखती है लकड़ी-लगावन, धान की भूसी
सुबह उठता हूँ
देखता हूँ बोरसी में दहकती हुई आग
और उसके ऊपर परिवार के
सभी जनों की फैली हुई हथेलियाँ
कहती है माँ ज़्यादा खुदुर-बुदुर न करो
ज़िन्दा रहने दो बोरसी में आग
धूप निकलते बोरसी से छिटक कर घमौनी करने
चले जाते हैं परिवार-जन
और माँ
बोरसी पर झुकी हुई रहती है
जब तक रहती है बोरसी में आग