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पदचिन्ह / स्वप्निल श्रीवास्तव

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गीली-गीली पगडंडियों पर

साँचे की तरह छप गए हैं पदचिन्ह

मिट्टी की नींद को तोड़ते हुए ये पदचिन्ह

कलाकृतियों की तरह आकर्षित करते हैं


ऎसे करोड़ों पदचिन्ह धरती पर उतरते हैं

और गीली मिट्टी पर दर्ज़ करते हैं अपनी उपस्थिति

ये पदचिन्ह करोड़ों लोगों के

ज़मीन के पक्ष में हस्ताक्षर हैं


बिल्कुल ताज़े पदचिन्ह जैसे अभी

ताज़ा फ़्रेम पर काढ़े गए हों

ख़ुरदुरे फिर भी ख़ूबसूरत

पदचिन्हों में दिखाई दे रही हैं

स्पष्ट एक-एक अंगुलियाँ, लकीरें

कौन पढ़ सकता है इन लिपियों को


महत्त्वपूर्ण और दुर्लभ पदचिन्ह

अनवरत यात्रा पर निकले हुए हैं

जहाँ ये उगे हैं

वहीं रहने दो इन्हें

ये कल दिखाएंगे हमें राह

इन पदचिन्हों को पहन नहीं सकती कोई कविता