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चेहरा / केशव

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मेरे भीतर मौजूद है
एक और चेहरा
जिसे पहचानने की कोशिश में
झरते जा रहे हैं रंग
एक-एक कर

कहाँ से उठ रही है
अहं के जलने की गंध
सोचते-सोचते
झुकने लगे हैं कँधे

मैं समझता रहा दुख को
औरों के घर का
सनसनीखेज़ समाचार
पर अब उसका खुला जबड़ा
मुझे अपनी खिड़की के काँच से
दिखाई देता है

सामने है आईना
पर चेहरा नदारद
शायद कहीं
परहेज की दीवार पर बैठा हूँ

कैसा हूँ
कि कहीं होने से पहले ही
अपना चेहरा गँवा बैठा हूँ.