Last modified on 21 फ़रवरी 2009, at 00:29

स्वर्णमृग / केशव

प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:29, 21 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशव |संग्रह=भविष्य के नाम पर / केशव }} <Poem> जब-जब भी ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जब-जब भी तैरता हूँ
अस्तित्व के गहरे जल में
बाहर की दुनिया का
कोई भी टिमटिमाता संकेत
मुझे समेट नहीं पाता अपने जाल में
अपने होने के साथ
हुआ जब-जब सामना
छटपटाकर सौंप देना चाहा खुद को
जल पर मँडराती
सुनहरी किरणों के हाथों
या अँधकार को
करना चाहा रोशन
पटाखे की लौ से
लेकिन क्या दुनिया के रँगों में
बहने वाला वहशी संगीत
क्या नियति के मार्ग का स्वर्णमृग
कुछ भी टिक न सका
चेतना की सतह पर
आईने पर
पत्थर फेंक देने पर भी
दिखाई दिया हर टुकड़े में
अपना ही चेहरा
भय से काला पड़ा
भ्रमों से छला.