ज़िन्दा हैं ज़िन्दगी से मगर जूझते हुए
हम लोग अपनी-अपनी जगह टूटते हुए
पानी का कुछ ख़याल करो मेरे दोस्तो
इक उम्र जो गई है इसे खौलते हुए
बहरों के इस शहर में कोई फ़ायदा नहीं
तुम भूलते रहे हो सदा चीख़ते हुए
कोई दिखा है करिश्में उधर ज़रूर
जिस और जारहा है शहर दौड़ते हुए
तुम ही बताओ आख़िर अंजाम हो तो क्या
हक लोग माँगते हैं मगर काँपते हुए